उत्तराखंड

पलायन की दुखती रग

पहाड़ दूर से बहुत सुंदर लगते हैं. करीब जाइए तो उनकी हकीकत समझ में आती है. अपनी आंखों के सैलानीपन से बाहर आकर आप देखेंगे तो पाएंगे कि पहाड़ की जिंदगी कितने तरह के इम्तिहान लेती है.

यह बदकिस्मती नहीं, विकास की बदनीयती है कि इन दिनों पहाड़ के संकट और बढ़ गए हैं. पहाड़ आज की तारीख में बेदखली, विस्थापन और सन्नाटे का नाम है. घरों पर ताले पड़े हुए हैं, दिलों में उदासी है, थके हुए पांव राहत नाम के किसी बुलावे की उम्मीद में पहाड़ों से उतरते हैं.

आज पलायन उत्तराखंड के लिए एक गम्भीर प्रश्न बन गया है. हमें पलायन को रोकने के लिए कारणों का निवारण करना होगा. उच्च शिक्षा की बात करें तो देहरादून के अलावा उंगलियों में गिनने लायक ही अच्छे शिक्षा संस्थान हैं. कृषि योग्य भूमि का कम होना और साथ में परम्परागत अनाज को उसका उचित स्थान न मिलना भी पलायन का एक महत्त्वपूर्ण कारण है. उत्तराखंड के उन किसानों पर किसी का ध्यान नहीं जाता जो कभी जौ, बाजरा, कोदा, झंगोरा उगाते थे और उस खेती का सही लागत मूल्य न मिलने के कारण उन्होंने इसे उगाना ही छोड़ दिया. सरकार चाहे तो यहां के परम्परागत अनाज का सही लागत मूल्य जारी कर पलायन रोकने के लिए एक अच्छा कदम उठा सकती है.

वर्ष 2011 की जनगणना में कहा गया था कि 2001 में पहाड़ी इलाकों में 53 प्रतिशत लोग थे. लेकिन 2011 में इन पहाड़ी इलाकों मात्र 48 प्रतिशत ही लोग रह गए. एनएसएसओ का 70वां सव्रे बताता है कि उत्तराखंड में कृषि उपज की कीमत राष्ट्रीय औसत से 3.4 गुना कम है. उत्तराखंड में औसत कृषि उपज कीमत 10,752 रुपये प्रति परिवार थी. जबकि कृषि उपज कीमत का राष्ट्रीय औसत 36,696 रुपये. अगर पड़ोसी राज्य हिमाचल की बात की जाए तो खेतिहर परिवार की आय हिमाचल से लगभग आधी है. उत्तराखंड में एक खेतिहर परिवार की औसत मासिक आय 4,701 रुपये थी. जबकि हिमाचल में खेतिहर परिवार की औसत मासिक आय 8,777 रुपये थी.

कृषि प्रधान देश होने के नाते कई सीखें विरासत में हमें मिलीं, पर हम उनका सही से प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं. हमारे खेत छोटे हैं, बिखरे पड़े हैं और जहां गांवों में पलायन हो चुका है वहां खेत बंजर और खाली पड़े हैं. पाली हाउस तकनीक से ज्यादा-से-ज्यादा सब्जियां उगाने पर ध्यान दिया जा सकता है. हिमाचल हमारे लिए एक उदाहरण है कि कैसे वहां कृषि को फलों की तरफ मोड़कर समृद्धि हासिल की गई. 2001 से 2011 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों की 5.1 प्रतिशत आबादी घटी है. पहले कुल जनसंख्या का ज्यादातर अनुपात गांवों में रहता था, लेकिन पलायन की वजह से गांव के गांव खाली हो गए हैं. ग्रामीण आबादी शहरी क्षेत्र की तरफ सिमट रही है. स्वास्थ्य की समस्या से पहाड़ जूझ रहा है.

डॉक्टर तो हैं नहीं साथ ही पैरामेडिकल और फार्मेसी स्टाफ की भी बेहद कमी है. 108 एंबुलेंस हमारे लिए जीवनदायनी जरूर साबित हुई पर पीपीपी मॉडल का यह खेल बहुत से सवाल भी छोड़ता है. तीर्थ स्थल गौरवान्वित महसूस कराते हैं, मगर यह पूरा सिस्टम इतना अव्यवस्थित है कि इससे अच्छा रोजगार नहीं जुटाया जा सका है. युवा पीढ़ी शिक्षा और रोजगार के लिए दूसरे शहरों में जाती है और वहीं की होकर रह जाती है. 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड के 17793 गांवों में से 1053 गांव पूरी तरह से वीरान हो चुके हैं. अन्य 405 गांवों में लगभग 10 से कम लोग निवास कर रहे हैं.

 2013 में आई भीषण प्राकृतिक आपदा के बाद से गांवों से पलायन का ग्राफ बढ़ गया है. सरकार की योजना जुलाई अंत तक पर्वतीय क्षेत्रों में डक्टरों की तैनाती सुनिचित करने के लिए उत्तराखंड में 2700 डक्टर लाने की है. इसके लिए तमिलनाडु, उड़ीसा व महाराष्ट्र आदि राज्यों से डॉक्टर लेने की तैयारी चल रही है. इसके साथ ही पर्यटन के लिए 13 नये क्षेत्र खोले जा रहे हैं. आखिर क्या वजह है कि बहुत ही कम युवा आज की तारीख में गांवों की तरफ रुख कर रहे हैं? राज्य सरकार के पास ऐसी कोई नीति नहीं है, जिसके तहत यहां का युवा पहाड़ के विकास के लिए काम करे.

आज उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में कठिन जिंदगी से मुक्ति की जिंदगी को पलायन का नाम दिया जाता है. यदि इसी प्रकार पलायन बढ़ता गया तो गांवों में इंसान नहीं जानवर देखने को मिलेंगे. पलायन को लेकर जो भी परिभाषाएं गढ़ी जाती हों, लेकिन हकीकत में इसी कठिन जीवन से मुक्ति का नाम है पलायन.

 

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