उत्तराखंड

यहां हरियाली से किया जाता है कुफ्फू देवता का श्रृंगार

विकासनगर : देहरादून जिले के सीमांत क्षेत्र बिन्हार के अंतिम गांव मटोगी में श्रावण संक्रांति पर मनाया जाने वाला हरियाली एवं खुशहाली का प्रतीक कुफ्फू पर्व सदियों बाद भी आस्था व परंपरा का मिश्रण बना हुआ है। ग्रामीण इस पर्व को भद्रराज देवता की आराधना से शुरू करते हैं।

इसमें गांव के एक व्यक्ति को कुफ्फू देवता का प्रतीक बनाया जाता है।  जिसका श्रृंगार अनाज की बालियों व हरे पत्तों से होता है। कुफ्फू गांव के खेतों की परिक्रमा कर भद्रराज की बावड़ी में पहुंचता है, जहां घी-मक्खन से भद्रराज की पूजा-अर्चना करने के बाद पर्व पूर्णता को प्राप्त होता है। इस परंपरा को पूरी आस्था से मनाया गया।

पर्यटन एवं सांस्कृतिक विकास समिति मटोगी के अध्यक्ष संजीत तोमर ने बताया कि मटोगी से लेकर मसूरी तक के रास्ते में कहीं भी प्राकृतिक जलस्रोत नहीं हैं। गांव में प्रचलित मिथक के अनुसार इस रास्ते से गुजरने वाले राहगीरों की परेशानी को देखते हुए भद्रराज देवता ने मटोगी में अपनी शक्ति से बावड़ी प्रकट की।

इस बावड़ी की खासियत यह है कि इसमें बारहों महीने जल का स्तर एक समान रहता है। समिति से जुड़े मनोज तोमर, मुकेश तोमर, भजवीर तोमर, आदि बताते हैं कि भद्रराज देवता के आदेश पर ही गांव में खुशहाली के लिए कुफ्फू पर्व मनाया जाता है।

बालियों से कुफ्फू का शृंगार करने के पीछे धारणा यह है कि इससे गांव में अन्न का उत्पादन प्रचुर मात्रा में होगा। जबकि, हरी पत्तियों से शृंगार करने में मानव के प्रकृति से जुड़े रहने की अवधारणा निहित है। पर्व का समापन बावड़ी की घी व मक्खन से पूजा के साथ होता है।

बावड़ी की पूजा के दौरान कुफ्फू बना व्यक्ति ग्रामीणों के साथ मक्खन व घी की होली खेलता है, जिसके पीछे गांव में आर्थिक संपन्नता बने रहने की धारणा छिपी है। यही वजह है कि आज भी ग्रामीण कुफ्फू पर्व की परंपरा को हर्षोल्लास के साभ निभा रहे हैं।

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