उत्तराखंड

विलुप्त हो रहे ढोल के संरक्षण को थाप दे रहा लोहारी

देहरादून: बच्चे के जन्म की खुशी हो या फिर किसी अपने के मरने का गम, एक वक्त था जब ढोल घर-घर का दुख-सुख बांटा करता था। अब धीरे-धीरे ढोल के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा। शादी, विवाह व मांगलिक कार्यों में अब ढोल की थाप सुनाई नहीं देती।

लोक वाद्ययंत्र ढोल का जनजाति क्षेत्र जौनसार-बावर से पुराना नाता रहा है। शायद यही वजह है कि लोहारी की महासू मंदिर समिति ने ढोल प्रतिस्पर्धा का आयोजन कर इसके संरक्षण की दिशा में एक कदम बढ़ाया। प्रतियोगिता के दौरान जब एक साथ आठ से अधिक ढोल पर थाप हुई तो खत धुनोऊ का हर बाशिंदा झूम उठा।

बीते दिनों चकराता के सुदूरवर्ती इलाके में बसे लोहारी गांव में पुश्तैनी रूप से ढोल से जुड़े बाजगी समुदाय के लोगों को महासू मंदिर समिति लोहारी ने गांव में बुलाकर ढोल के संरक्षण के लिए प्रतिस्पर्धा कराई। इसमें कई नामी ढोलियों ने ढोल की कुछ तालें बजाई।

समिति अध्यक्ष मेहर सिंह चौहान ने बताया कि ढोल का नाता जौनसार-बावर से पुराना है। ढोल के बिना यहां का जीवन अधूरा है। हालांकि नई पीढ़ी का कला-संस्कृति की ओर रूझान न होने के चलते यहां ढोल की गूंज घटी है।

बुजुर्ग ढोल कलाकार नत्थीदास, मोहनदास, जगरदास आदि का कहना है कि सरकार की ओर से बाजगी समुदाय की इस कला को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, जिससे समुदाय की युवा पीढ़ी में ढोल के प्रति रूझान बढ़े। युवा ढोली धनदास, सुन्दरदास व श्याम आदि का कहना है कि राज्य का लोक वाद्ययंत्र होने के बावजूद ढोल अपने बुरे दौर से गुजर रहा है।

इसके अलावा पुराने ढोल बजाने वाले बाजगी समुदाय के लोग भी धीरे-धीरे इस पेशे को छोड़ रहे हैं। वहीं युवा पीढ़ी को ढोल बजाने में रुचि नहीं है। लेकिन, ऐसी प्रतियोगिताएं आयोजित कर हम ढोल का संरक्षण कर सकते हैं।

ढोल के कई नाम

नाग जाति से जुड़े ढोल को गुरु वाद्ययंत्र कहा जाता है। साथ ही इसे डोरिका, नाद, गजाबल, पुड, कुडल, कदोटा, कर्णका नाम से भी जाना जाता था। ढोल का सीधा संबंध ब्रह्मा, पवन, भीम, विष्णु व नाग भी है। एक समय ढोल की चार शैलियां हुआ करती थी, लेकिन धीरे-धीरे तीन शैलियां पूर्णत: खत्म हो चली है।

अब एकमात्र शैली की कुछ ताल ही सुनाई देती हैं। विलुप्त शैली में अमृत, पुराण व सिंधु शामिल हैं। जो शेष है वो है मध्यानी शैली, जिसमें शबद, जोड़, जंग, पुंछ-अंपुछ, बढै, चासण, धुयाल, रहमानी बेलवाल, चोरास व थरहरी तालें ही चलन में हैं।

  • संपादक कविन्द्र पयाल

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