देश-विदेश

जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने जिस भाषा में फारुख अब्दुल्ला का प्रतिकार किया है उसका देश भर में स्वागत किया जाना बिल्कुल स्वाभाविक है.

वस्तुत: अब्दुल्ला ने जिस तरह कश्मीर मामले में तीसरे पक्ष की मध्यस्थता की वकालत की उससे पूरे देश में उबाल पैदा हुआ है. हालांकि, मेहबूबा और उनकी पार्टी पीडीपी भी कश्मीर समस्या के समाधान के लिए सभी पक्षों से बातचीत की वकालत करतीं रहीं हैं, पाकिस्तान को वो भी पक्षकार मानती हैं लेकिन कुछ समय से उनकी भाषा में अंतर आया है. पिछले दिनों उन्होंने यह बयान दिया कि कश्मीर में अब चीन भी हस्तक्षेप कर रहा है और हम एक जंग लड़ रहे हैं.

मुख्यमंत्री के नाते यह एक बड़ा और व्यावहारिक वक्तव्य था. अब उन्होंने अब्दुल्ला के बयान के बाद कहा है कि कश्मीर को सीरिया, तुर्की और इराक नहीं बनाना है. जाहिर है, वे पहले के बयान से कई कदम आगे बढ़ी हैं. जिस देश में भी बड़ी शक्तियों का हस्तक्षेप हुआ वहां हिंसा, गृहयुद्ध और अराजकता के हालात बने हैं.

अब्दुल्ला ने पाकिस्तान से मध्यस्थों के जरिए बातचीत की वकालत करते हुए अमेरिका और चीन का नाम लिया था. चीन के बारे में तो महबूबा पहले ही बयान दे चुकीं हैं. अमेरिका का उन्होंने नाम नहीं लिया मगर उनका इशारा स्पष्ट था. ऐसा लगता है कि शासन में रहने के कारण मेहबूबा को जम्मू-कश्मीर की स्थिति की वास्तविकता का पूरा आभास हो रहा है. उन्हें लग रहा है कि सारी समस्या की जड़ पाकिस्तान और उनके शब्दों में चीन जैसे देशों का हस्तक्षेप ही है. तो कश्मीर की शांति के लिए इसका अंत करना पहले जरूरी है.

दरअसल, मेहबूबा का बयान उन सब लोगों को एक चेतावनी है जो कश्मीर की राजनीति में तीसरे पक्ष को आमंत्रण देने के पक्षधर है. हालांकि, पहले राहुल गांधी ने फारुख के बयान का खंडन कर दिया था. भाजपा ने भी इसका विरोध किया था. लेकिन महबूबा के कहने के मायने अलग हैं. ये राष्ट्रीय पार्टियां हैं और इनका जम्मू-कश्मीर के मामले में राष्ट्रीय दृष्टिकोण माना जाता है.

महबूबा की पार्टी क्षेत्रीय है, जिसका पूरा दृष्टिकोण और विचार जम्मू-कश्मीर से संबंधित और वहीं तक सीमित है. इसलिए उनके द्वारा मध्यस्थता में बातचीत को नकारने का संदेश ज्यादा गहरा जाएगा. हुर्रियत और ऐसे पाकिस्तान समर्थकों को छोड़ दें तो कश्मीर के आम लोगों, अन्य दलों के और संगठनों के नेताओं में इसका एक साफ संदेश गया होगा.

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