उत्तराखंड

 देवभूमि में आज हरेला पर्व का उत्सव, हरियाली के साथ स्वास्थ्य और संस्कृति से जुड़ा है महत्व

हरेला पर्व केवल पर्यावरण संतुलन को साधने में ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य से जुड़े तमाम कारक का भी द्योतक है। इस पर्व पर चर्चा के दौरान आयुष विशेषज्ञों ने भी कई संहिताओं से उदाहरण प्रस्तुत किया। इसमें ऋतुचर्या और ऋतु द्रव्यों के साथ भोजन औषधी को भी जोड़कर देखा जाता है। आयुर्वेद विशेषज्ञ डॉ. अवनीश उपाध्याय की मानें तो यह केवल प्रकृति प्रेम ही नहीं शरीर, मन और परिवेश के संतुलन का भी असीम अनुभव कराने वाला पर्व है।

हरेला वैसे ‎उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान और पर्यावरण चेतना का प्रतीक पर्व है। वहीं आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति से जुड़े विशेषज्ञ बताते हैं कि यह केवल कृषि परंपरा का उत्सव नहीं, बल्कि ऋतुचर्या और देह की प्रकृति के अनुरूप जीवनशैली में बदलाव का संकेतक भी है। ‎‎

आयुर्वेद शोध विशेषज्ञ डॉ. अवनीश उपाध्याय बताते हैं, हरेले के अंकुर पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। इनमें क्लोरोफिल, एंजाइम्स, फाइबर और सूक्ष्म खनिज प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं जो पाचन, त्वचा और मनोदशा सुधारने में सहायक होते हैं। इन्हें सुखाकर पाउडर बनाकर भोजन में मिलाना एक प्रकार की आयुर्वेदिक टॉनिक का काम करता है।

आचार्य चरक ने भी किया है वर्णन
द्रव्यगुण विशेषज्ञ प्रो. सुरेश चौबे का कहना है कि आचार्य चरक ने संहिता में लिखा है ‘ऋतुभिर्हि गुणा: सर्वे द्रव्याणां भावयन्त्यपि’। अर्थात हर ऋतु द्रव्यों जैसे भोजन, औषधि के गुणों को बदल देती है। हरेला, वर्षा ऋतु के आगमन और ग्रीष्म की अग्नि से तपे शरीर को शीतलता देने का पर्व है। इस समय वात और पित्त दोष की वृद्धि होती है। पाचन अग्नि मंद हो जाती है। ऐसे में हरेला के अवसर पर परंपरागत रूप से खाए जाने वाले हल्के, पचने योग्य और स्निग्ध आहार लेने चाहिए।

सुपाच्य भोजन से शरीर के संतुलन को साधने का पर्व
आयुर्वेद विशेषज्ञ व ऋषिकुल आयुर्वेदिक कॉलेज के अगद तंत्र के विभागाध्यक्ष डॉ. रमेश चंद तिवारी बताते हैं कि इस पर्व से ही यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि भोजन सुपाच्य हो। उनका कहना है कि मंडुवे का रोटी, गहत की दाल, ककड़ी, लौकी, कुल्थ, झंगोरा खीर, लस्सी, और ताजे मौसमी फलों का सेवन आयुर्वेदिक दृष्टि से शरीर के दोषों को संतुलित करता है।

हरेला पर्व औषधीय साधना का पर्व है
ऋषिकुल आयुर्वेदिक कॉलेज परिसर के निदेशक डॉ. डीसी सिंह का कहना है कि हरेला बोने की प्रक्रिया ही एक प्रकार की औषधीय ध्यान साधना है। 5 से 11 प्रकार के अनाज गेहूं, जौ, मक्का, उड़द, तिल आदि को मिलाकर मिट्टी में बोया जाता है। यह मिश्रण ‘नवधान्य’ कहलाता है, जिसका उल्लेख काश्यप संहिता में भी है। जब यह हरे अंकुरित होते हैं, तो इन्हें देवता के रूप में पूजा जाता है और परिवार के बुजुर्गों से आशीर्वाद लेकर सिर पर रखा जाता है।

‎मानसिक और शारीरिक समन्वय को बेहतर बनाने का अवसर
पंचकर्म विशेषज्ञ डॉ. पारुल शर्मा का कहना है कि हरेला पर्व के दौरान बच्चों और युवाओं की ओर से खेली जाने वाली परंपरागत खेल सब शरीर को सक्रिय करने वाले प्राकृतिक व्यायाम हैं। यह मानसिक और शारीरिक समन्वय को बेहतर बनाते हैं, जिसे आयुर्वेद में ‘व्यास-बल-वर्धन’ कहा गया है। हरियाली लगाना केवल पर्यावरणीय कार्य नहीं है। आयुर्वेद में यह वनस्पति चिकित्सा का हिस्सा है। नीम, तुलसी, आंवला, पीपल, अर्जुन जैसे पौधे लगाए जाते हैं, जो पंचकर्म चिकित्सा में उपयोगी हैं।

जीवनशैली को प्रकृति के अनुरुप लाने का काल
योग विशेषज्ञ डॉ. रुचिता उपाध्याय का कहना है कि हरेला जीवनशैली को प्रकृति के अनुरूप लाने का काल है, जब हम अपने आसपास के वातावरण को औषधीय बनाते हैं और स्वयं भी शारीरिक और मानसिक रूप से अधिक सक्षम होते हैं। हरेला केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि स्वस्थ जीवन की प्रयोगशाला है, जहां प्रकृति, संस्कृति और चिकित्सा का अद्भुत समागम होता है। यह पर्व हमें स्मरण कराता है कि स्वास्थ्य केवल शरीर की स्थिति नहीं, बल्कि मन, पर्यावरण और समाज के साथ संतुलन में जीने की एक कला है।

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